Saturday, 7 December 2013

आर्य आक्रमण की कल्पना -- मात्र एक कुटिल कल्पना


आर्य जाती और आर्यों का आक्रमण है एक मिथक जिसे अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ और अपनी काल्पनिक श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए और आज कुछ लोग अपने छुद्र निजी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उस असत्य का प्रयोग कर रहे हैं और अपने निजी स्वार्थों के लिए उस कल्पना को जीवित रखना चाहते हैं जिसके पक्ष में कोई भी प्रमाण नहीं है | कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं है जिसे आर्य नमक जाती , आर्यों का आक्रमण भारोपीय भाषा या किसी भी ऐसी कल्पना का अस्तित्व सिद्ध होता हो |

आर्य आक्रमण सिद्धांत की सबसे पहली कल्पना ये कहती है की सिन्धु घटी सभ्यता आर्यों से पहले की सभ्यता है आर्यों 1500 ईसा पूर्व उसे आक्रमण करके नष्ट कर दिया था परन्तु आर्यों के इस काल्पनिक आक्रमण के काल और सिन्धु घाटी सभ्यता (जो की वास्तव में सिन्धु सरस्वती सभ्यता है) के अंत के बीच में 250 वर्षों का अंतर है |
इसके अतिरिक्त सिन्धु घाटी के अवशेषों में कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिला है जो की ये सिद्ध करे की इसका अंत किसी आक्रमण के कारण हुआ था | वहां जो भी मानव अस्थि अवशेष मिले हैं वो सभ्यता के मध्य काल के हैं ना की अंत काल के इसके अतिरिक्त उन पर ऐसे कोई निशान नहीं जिससे पता लगे की उनकी हत्या हुई थी |

इस सिद्धांत का दूसरा तथ्य ये कहता है की आर्य श्वेत वर्णी और स्वर्णकेशी थे परन्तु कोई इस बारे में बात नहीं करता है की आर्य श्रेष्ठ राम और कृष्ण काले क्यों थे | इसके अतिरिक्त अगर नेदों के रचनाकार ऋषि श्वेत वर्णी होते तो कम से कम उनके अन्दर श्वेत वर्ण के प्रति आकर्षण तो होना चाहिए था परन्तु ऋग्वेद ११-३-९ में कहते हैं "त्वाष्ट्र के आशीर्वाद से हमारी संतान पिशंग अर्थात गेहूं के रंग के पीले भूरे हों "

एक अन्य तर्क के अनुसार आर्य मूर्ती पूजा के विरोधी थे और केवल यज्ञ करते थे जब की सिन्धु घाटी के निवासी केवल मूर्ती पूजा करते थे |परन्तु सिन्धु घटी के नगरों में भी यज्ञ शालाएं मिली हैं तथा ऋग्वेद ४-२४-१० में कहा गया है "हे इंद्र मैं तुझे हजार पर भी नहीं बेचूंगा दस हजार पर भी नहीं " अतः इंद्र को नई इंद्र की मूर्ती को ही बेचा जा सकता है | कुछ लोग कहते हैं वेदों में मूर्ती पूजा की निंदा की गयी है परन्तु पुरानो में तो यज्ञ को "हजार छिद्रों वाली नौका" कहा गया है | वास्तव में हमारी संस्कृति में विचारधाराओं में अंतर का सदैव सम्मान किया गया है परन्तु ईसाई और इस्लामिक कट्टरता में फसे हुए लोग इस बात को कैसे स्वीकार कर सकते थे ???


इसी श्रंखला में एक काल्पनिक भारोपीय भाषा की कल्पना कर ली गयी जिसका कोई भी प्रमाण नहीं मिला | इस तथ्य की अवहेलना की गयी की संस्कृत सभी भारतीय भाषाओँ की जननी है तथा कुछ काल्पनिक सिद्धांतों के आधार पर भारत की भाषाओँ को आर्य भाषा तथा द्रविड़ भाषाओँ में विभाजित कर दिया गया परन्तु यदि उन्ही सिद्धांतों के आधार पर परीक्षण करें तो संस्कृत ६०% , मराठी ८०% तथा हिन्दी तो १०० % द्रविड़ भाषा है |


वेदों में सर्वत्र भारत भूमि का ही वर्णन आया है इससे ये सिद्ध होता है वेद भारत भूमि में ही रचे गए हैं परन्तु वेदों में कपास का वर्णन नहीं हैं जबकी इसका उपयोग सिन्धु घटी सभ्यता में होता था अतः यह स्वयं सिद्ध है की वेद सिन्धु घटी सभ्यता से अत्यंत प्राचीन हैं और इससे यह निष्कर्ष निकला जा सकता है की < >वेदों के रचनाकार ऋषि कथित आर्य आक्रमण से कहीं पूर्व में भारत में ही थे |


वास्तव में आर्य कोई जाती समूह नहीं था और ना ही कोई नस्लीय समूह आर्य का वही अर्थ है जो की आज "सभ्य" शब्द का था और सिन्धु घटी सभ्यता वास्तव में आर्यों की ही सभ्यता थी और वेद भी उनकी ही कृति थे |आर्य ना तो घुमक्कड़ थे और ना ही आक्रान्ता आपितु वो कृषि कर्म करने वाले और भारत की भूमि के ही निवासी थे और आज भी उनके ही वंशज यहाँ रह रहे हैं | "आर्य - द्रविड़" या "आर्य-मूलनिवासी " विभाजन पूर्णतयः एक काल्पनिक विभाजन है |

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